रविवार, 10 मई 2015

तकनीकी उपायों के भरोसे महिलाओं की सुरक्षा बेमानी



पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा सरकार की कथित प्राथमिकता और बौद्धिक जगत के बहस के दायरे में है। लेकिन यह दायर बेहद सिमटा हुआ है। इस सुरक्षा चिंता के दायरे में सिर्फ शहरी महिलाएं, वो भी कामकाजी महिलाएं होती हैं। सुदूर ग्रामीण इलाकों और कमजोर तबके की महिलाओं के लिए सुरक्षा बंदोबस्त या बहस सिर्फ कोरम पूरा करने के लिए जाहिर होता है। असल धरातल पर कार्रवाई सिफर है। जिस तरह के तमाम उपाय महिलाओं की सुरक्षा के लिए किए जा रहे हैं चाहे वह एप हो, सुरक्षा उपकरण या सीसीटीवी कैमरा हो। कहा जाता है कि एप या सुरक्षा उपकरण का इस्तेमाल करके महिला अपनी सुरक्षा कर सकती है। लेकिन सवाल यह है कि घरेलू महिलाओं और गांव की महिलाओं का क्या होगा जिनके पास शायद मोबाइल भी नहीं होता है और उनके पास सुरक्षा उपकरणों को खरीद पाने की क्षमता भी नहीं होती। वैसे भी इन एप्पस का दायरा सिर्फ शहरी कामकाजी महिलाओं तक ही सीमित है। एकबारगी यह बात मान भी ली जाए कि घरेलू महिलाओं और गांव की महिलाओं के पास स्मार्टफोन हो। तब भी एक अहम सवाल उठता है कि वह इन एप्पस का इस्तेमाल कैसे कर पाएंगी। हर नई तकनीक को समझने या सिखने के लिए प्रशिक्षण की जरूरत होती। जब तक महिलाएं इस तरह की तकनीक का इस्तेमाल करना नहीं जान पाएंगी, तब तक यह बात कैसे कही जा सकती है कि इन एप्पस या सुरक्षा उपकरणों के जरिए कोई महिला अपनी सुरक्षा सुनिश्चित कर सकती है। आइआइटी-दिल्ली और दिल्ली इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों ने महिला सुरक्षा से जुड़ा एक ऐसा उपकरण तैयार किया है जिसे हाथ में कलाई घड़ी या गले में नेकलेस की तरह पहना जा सकता है। और भी न जाने कितने उपकरणों महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए जा रहे हैं।

महिलाओं की सुरक्षा को पूरी तरह से तकनीक और सुरक्षा उपकरणों पर निर्भर बनाने की कोशिश की जा रही है जिसमें सीसीटीवी कैमरे, एप्पस, सुरक्षा उपकरण, जीपीएस सिस्टम जैसी तकनीक शामिल है। तकनीक और उपकरणों का इस्तेमाल महिलाओं की सुरक्षा के लिए किसी एक राज्य तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि देश के हर राज्य की सरकारें तकनीक और सुरक्षा उपकरणों के भरोसे ही महिला की सुरक्षा की बात कर रही हैं। हर राज्य में महिलाओं की सुरक्षा का तर्क देकर सीसीटीवी कैमरों को लगाया जा रहा है, जबकि विकसित देशों तक में सीसीटीवी कैमरे के इस्तेमाल के वाबजूद अपराध दर में कोई खास कमी नहीं आई है। साथ ही कई राज्य सरकारों ने एप्प भी लांच किए हैं, उदाहरण के तौर पर हम देख सकते है कि दिल्ली में महिलाओँ की सुरक्षा के लिए हिम्मत एप, चड़ीगढ़ में 24*7 एप और उत्तर प्रदेश में 1090 एप। इसके अलावा न जाने कितने एप्पस हैं, जिनके जरिए महिलाओं की सुरक्षा की बात की जा रही है। दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा के लिए लांच हिम्मत एप को एक महीने में तीन हजार से ज्यादा लोगों ने डाउनलोड किया, लेकिन एप के जरिए मदद के लिए किसी ने भी इसका इस्तेमाल नहीं किया।  

इन एप का उपयोग स्मार्टफोन और इंटरनेट के बिना असंभव है। द इंटरनेट और मोबाइल एसोसिएशन की रिपोर्ट के मुताबिक दिसम्बर 2014 तक मोबाइल पर इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 17.3 करोड़ है। यह आंकड़ा बताता है कि देश की आबादी के हिसाब अब भी मोबाइल पर इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या काफी कम है। मोबाइल पर इंटरनेट इस्तेमाल करने वाली आबादी में भी गांवों के मुकाबले शहरी आबादी का प्रतिशत ज्यादा है। तब फिर कैसे हम महिलाओं की सुरक्षा के लिए एप लांच करके निश्चित हो सकते हैं। 

हमारा समाज संवेदनहीन होता जा रहा है। क्योंकि कई घटनाएं लोगों के सामने होती है, लेकिन लोग घटना को मूक दर्शक बनकर देखते रहते बजाए इसके कि वह मदद करें। जब तक हम लोग संवेदनशील नहीं होंगे। साथ ही हम लोग एक दूसरे की मदद नहीं करेंगे और जब तक हम लोग पुलिस का साथ नहीं देंगे तब तक इस तरह की घटनाओं में कमी नहीं आ सकती। साथ ही पुलिस को भी अपनी छवि सुधारनी होगी, ताकि पुलिस और जनता के बीच बेहतर संबंध कायम हो सकें। पुलिस सुधार पर ज्यादा बल दिया जाए और पुलिस को संवेदनशील बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। पुलिस सुधार को लेकर बनी कमेटियों की सिफारिशों को अमल में लाया जाना चाहिए। तभी इस तरह की घटनाओं को रोक जा सकता हैं।

इन तकनीकी उपायों के जरिए भी महिलाएं अपनी सुरक्षा के लिए किसी न किसी पर निर्भर ही रहेंगी जैसा पहले से होता आ रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि अब तकनीक के जरिए महिलाएं अपनी सुरक्षा के लिए किसी से मदद मांगेगी। 

महिलाओं की सुरक्षा के लिए यह भी जरूरी है कि उन्हें आत्मरक्षा के लिए प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि वह खुद अपनी रक्षा कर सकें। अभी हाल ही में दिल्ली और केंद्रशासित प्रदेशों के पुलिस-बल में अराजपत्रित स्तर तक की सीधी नियुक्तियों में महिलाओं के लिए तैंतीस फीसद आरक्षण के प्रस्ताव को केंद्र सरकार ने मंजूरी दी है, जोकि महिलाओं की सुरक्षा के लिए एक बेहतर कदम है।

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

शिक्षा से बेदखल बनाए रखने की नीयत


पहले सर्व शिक्षा अभियान और उसके बाद शिक्षा का अधिकार कानून भी लागू किया गया, लेकिन उसके बाद भी 60 लाख बच्चे स्कूली शिक्षा से दूर है। साथ ही वंचित तबके के लिए आरक्षित सीटें भी नहीं भरी जा रही हैं। इस स्थिति में हम कैसे हर बच्चे को बुनियादी शिक्षा दे पाएंगे।  

शिक्षा का अधिकार कानून को लागू हुए पांच साल हो चुके हैं। शिक्षा का अधिकार कानून की धारा 12(1) (स) में आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित वर्ग के बच्चों के लिए स्कूलों (गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक स्कूलों को छोड़कर) में 25 फीसदी सीट आरक्षित करने की बात कही गई है। इस संबंध में अप्रैल 2012 में सुप्रीम कोर्ट का भी फैसला आया था। लेकिन आज भी इस प्रावधान का लाभ कमजोर वर्ग और सुविधाहीन बच्चों को नहीं मिल पा रहा है। 

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च और विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के उपक्रम सेंट्रल स्क्वेयर फाउंडेशन और आईआईएम अहमदाबाद की रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में 21 लाख सीटों में से सिर्फ 29 फीसदी सीटें ही भरी गई है। दिल्ली में 92 फीसदी, मध्यप्रदेश में 88 फीसदी, राजस्थान में 69 फीसदी सीटों पर आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर तबके के बच्चों को दाखिला दिया गया। इन राज्यों में अन्य राज्यों के मुकाबले स्थिति बेहतर रही। जबकि 25 फीसदी आरक्षित सीटों में आंध्रप्रदेश में 0.2 फीसदी, उड़ीसा में 1.85 फीसदी और उत्तर प्रदेश में 3.62 फीसदी सीटों को ही भरा गया। इन आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि भले ही कुछ राज्यों में आरक्षित सीटों पर बच्चों को दाखिला दिया जा रहा हो, लेकिन अभी भी आरक्षित सीटों पर वंचित तबके के बच्चों के दाखिले की स्थिति को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता।
आज भी कई निजी स्कूल गरीब बच्चों को अपने यहां दाखिला देने से बचने के लिए कई तरह के बहाने बनाते हैं और अभिभावकों पर फीस या डोनेशन के लिए दबाव बनाते हैं। तो कई अभिभावकों के बच्चों को जाति या आय प्रमाणपत्र न होने के कारण भी दाखिला नहीं मिल पाता है। एक ऐसा वर्ग जिसकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति ठीक है, वह भी आरक्षित सीटों पर अपने बच्चों के दाखिले के लिए जाति या आय प्रमाणपत्र जुटाते दिखते हैं। सही मायने में अभी भी इस प्रावधान का लाभ कमजोर वर्ग व सुविधाहीन बच्चों को पूर्ण रूप से नहीं मिल पा रहा है। इसकी एक वजह यह है कि वंचित तबके में इस प्रावधान को लेकर जागरूकता का अभाव है। सरकार द्वारा इस्तेमाल में लाए जा रहे प्रसार माध्यम पहुंच की दृष्टि से आसानी से उपलब्ध नहीं है।

पिछले एक दशक में निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। सरकारी स्कूलों में बच्चों के नामांकन में गिरावट देखी जा रही है। बच्चों के नामांकन में गिरावट को आधार बनाकर सरकारी स्कूलों को बंद किया जा रहा है। इस बात को नेशनल कोइलिएशन फॉर एजुकेशन की रिपोर्ट से समझा जा सकता है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के विभिन्न राज्यों में वर्तमान में चलने वाले सरकारी स्कूलों को बंद किया जा रहा है। राजस्थान में 17,129,  गुजरात में 13,450,  महाराष्ट में 13,905, कर्नाटक में 12,000, आंध्र प्रदेश में 5,503 स्कूल बंद कर दिए गए। यहां सवाल उठता है कि सरकारी स्कूल भी बंद कर दिए जाएंगे और निजी स्कूलों में प्रावधान के तहत बच्चों को दाखिल भी नहीं मिलेगा। तब उस कमजोर और सुविधाहीन बड़े तबके का क्या होगा, जो अंत में जाकर सरकारी स्कूलों में ही प्रवेश लेता है। 

आरटीई में 12 (1) (स) में प्रावधान है कि बच्चों को दाखिले के साथ यूनिफार्म, पुस्तकें जैसी अन्य सुविधाएं भी मिलनी चाहिए। इस प्रावधान के तहत ऐसा माहौल तैयार किय़ा जाना चाहिए कि सुविधाहीन और कमजोर वर्ग के बच्चे उन स्कूलों में अन्य बच्चों के साथ सामंजस्य बना सकें। अगर बच्चों के बीच सामंजस्य नहीं बनेगा तो उनमें आत्मविश्वास की कमी होगी और वह हीन भावना का शिकार होंगे। कई निजी स्कूलों ने अपने यहां इस प्रावधान के तहत आर्थिक-सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चों को दाखिल तो दे दिया गया, लेकिन उन बच्चों का समावेशन नहीं किया गया। अगर समावेशन पर जोर नहीं दिया गया तो एक बड़ा तबका शिक्षा से दूर हो जाएगा और उसका विकास नहीं हो पायेगा। साथ ही समाज के वर्गों में भेदभाव भी कम नहीं होगा।     

इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि इस प्रावधान का लाभ बच्चों को दिलाने के बहाने सरकार कहीं सरकारी स्कूलों को बंद करने की कोशिश तो नहीं कर रही है। अगर सरकारी स्कूलों को बंद कर दिया गया तो वंचित समुदाय से शिक्षा का विकल्प दूर हो जाएगा। वैसे भी पिछले एक दशक में शिक्षा के निजीकरण को तेजी बढ़ावा दिया गया है। 



शनिवार, 31 जनवरी 2015

बुनियाद शिक्षा की हकीकत

एनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) 2014 ने एक बार फिर हमारी शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक तीसरी कक्षा के एक चौथाई बच्चे ही दूसरी कक्षा के पाठ को पढ़ पाते हैं और पांचवीं कक्षा के आधे बच्चे ही दूसरी कक्षा का पाठ पढ़ सकते हैं। वहीं आठवीं कक्षा के 25 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ भी नहीं पढ़ पाते हैं। 2014 में पांचवीं कक्षा के 48.1 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा का पाठ पढ़ पा रहे हैं, जोकि 2013 में 47 फीसदी और 2012 में 46.8 फीसदी था। बच्चों के पढ़ने के स्तर में मामूली सा सुधार हुआ है। शिक्षा का अधिकार कानून के पांच साल बीतने के बाद भी क्या बच्चों के पढ़ने के स्तर में हुए मामूली सुधार को सुधार कहा जा सकता है, जबकि बच्चों के पाठ पढ़ने के स्तर में बिहार, असम, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में कोई बदलाव नहीं दिखता है।

इसी तरह, छात्रों के अंग्रेजी पढ़ने की क्षमता में कोई सुधार नहीं दिखता है। 2014 में भी पांचवीं कक्षा के सिर्फ 25 फीसदी छात्र ही अंग्रेजी का आसान वाक्य पढ़ पा रहे हैं। वहीं 2009 में आठवीं कक्षा के 60.2 फीसदी छात्र अंग्रेजी के वाक्य पढ़ नहीं पाते थे। 2014 में यह दर घटकर 46.8 फीसदी हो गई है। उच्च प्राथमिक कक्षा में छात्रों के अंग्रेजी पढ़ने के स्तर में सुधार हुआ है। पिछले एक दशक से हमारे यहां बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है, लेकिन स्थिति यह है प्राथमिक स्तर पर भी बच्चे अंग्रेजी के सरल वाक्य को नहीं पढ़ पा रहे हैं। तो इसकी एक वजह प्राथमिक शिक्षा को अपनी भाषा में न देना और बच्चों पर अंग्रेजी पढ़ने के लिए अनावश्यक दबाव बनाना भी है।

वहीं ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में अंकगणित में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया है। 2014 में तीसरी कक्षा के 25.3 फीसदी बच्चे ही अपने को दो अंकों की संख्या को घटाने में सक्षम पाते हैं, जबकि 2012 में यह आंकड़ा 26.3 फीसदी था जिसमें गिरावट आई है। पांचवीं कक्षा के बच्चों के भाग करने की क्षमता मामूली सी बढ़ोतरी हुई है। 2009 में दूसरी कक्षा के 11.3 फीसदी बच्चे शून्य से नौ तक के अंक को नहीं पहचान रहे, लेकिन अब यह आंकड़ा 19.5 फीसदी हो चुका है।

2013 के मुकाबले निजी स्कूलों में नामांकन सभी राज्यों में बढ़ा है जिसमें गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, नगालैंड और केरल शामिल हैं। पांच राज्यों मणिपुर, केरल, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मेघालय के निजी स्कूलों में प्राथमिक स्तर पर नामांकन बढ़कर 50 फीसदी पहुंच गया है। प्राथमिक स्तर पर निजी स्कूलों में बढ़ते नामांकन के वाबजूद भी बच्चों के पाठ पढ़ने, सीखने की क्षमता और अंकगणित में कोई खास सुधार न होना यह बताता है कि शिक्षा के क्षेत्र में निजी स्कूलों की संख्या के बढ़ने से शिक्षा के स्तर में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है। निजी स्कूलों में बढ़ते नामांकन से यह बात साफ हो जाती है कि सरकारी स्कूलों के प्रति लोगों का भरोसा घटता जा रहा है। निजी स्कूलों में लड़कियों के मुकाबले लड़कों का अनुपात तेजी से बढ़ा है।

6-14 साल के बच्चों का नामांकन 96 फीसदी हो गया। लेकिन 15-16 साल के बच्चों के नामांकन के आंकड़ों को उत्साहजनक नहीं कहा जा सकता क्योंकि 15.9 फीसदी लड़के और 17.3 फीसदी लड़कियों अभी भी स्कूली शिक्षा से दूर हैं। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि शिक्षा का अधिकार कानून बनाने के कारण स्कूलों में 6-14 के बच्चों के नामांकन में वृद्धि हुई है और  बुनियादी सुविधाएं भी मिली है। स्कूलों में नामांकन में वृद्धि होने को शिक्षा के सुधार के तौर पर नहीं देखा जा सकता है, वो भी खासकर जब 6-14 के साल बच्चों के ही नामांकन में वृद्धि हो। प्राथमिक कक्षा के बच्चों का नामांकन भले ही बढ़ा हो, लेकिन पढ़ने और सीखने के स्तर तथा अंकगणित में कोई सुधार नहीं हुआ है।

तमिलनाडु में 2012 में कक्षा 5 के 31.9 प्रतिशत बच्चे ही दूसरे कक्षा का पाठ पढ़ पाते थे, लेकिन अब यह आंकड़ा 46.9 फीसदी पहुंच गया है। तमिलनाडु में यह सफलता अलग-अलग आयु वर्गों के बच्चों को उनकी सीखने की क्षमता के अनुसार अलग कक्षाओं में बैठाने के नये प्रयोग से मिली है।

इस बिनाह पर कहा जा सकता है कि बच्चे समूह में पढ़ने पर ज्यादा बेहतर सीखते हैं। बच्चों की क्षमताओं के अनुसार ही उनको पढ़ाया जाए तो बेहतर परिणाम मिल सकते हैं। जब बच्चों को बुनियादी शिक्षा ही गुणवत्तापूर्ण नहीं मिल पा रही है, तो हम प्राथमिक तौर पर उच्च शिक्षा और उच्च शिक्षा के स्तर की कल्पना कैसे कर सकते हैं। 

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

स्कूल में सजा की परम्परा और बच्चे

हमारे यहां स्कूलों में बच्चों को सजा देने या उनसे मारपीट की घटनाएं निरंतर हो रही हैं। सजा देने की प्रवृत्ति सरकारी और निजी दोनों स्कूलों में दिखती है। उदाहरण के तौर पर यहां तीन घटनाओं को देखा जा सकता है। 8 नवंबर को कानपुर के विजय नगर स्थित राजकीय कन्या इंटर कॉलेज के छात्र विनीत कुमार को उसके शिक्षक ने ऐसी सजा दी जिससे आहत होकर उसने घर आकर फांसी लगा ली। 26 नवंबर को हरियाणा में फरीदाबाद के एक पब्लिक स्कूल में होमवर्क न करने पर आठवीं कक्षा के छात्र को अध्यापक ने चपरासी बनने की बात कही जिससे आहत होकर उसने खुद को आग लगा ली। 27 नवंबर को मध्य प्रदेश में रतलाम के सरकारी आदर्श माध्यमिक विद्यालय में अध्यापक ने छठी कक्षा के छात्र को इतना पीटा कि उसकी नाक फूट गई। इस तरह की कई सारी घटनाएं देशभर में देखने को मिल जाएंगी।

इसी साल अगस्त में इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय के डिपार्टमेंट ऑफ स्कूल एजुकेशन एंड लिटरेसी ने स्कूलों को निर्देश दिए थे, जबकि इस तरह की घटनाओं को रोकने का शिक्षा का अधिकार कानून 2009 में भी प्रावधान किया गया है। कानून की धारा 17 (1) में कहा गया है कि बच्चों को किसी भी तरह से शारीरिक दंड या मानसिक तौर पर उत्पीड़ित न किया जाए। धारा 17 (2) में कहा गया है कि धारा 17 (1) के उल्लंघन करने पर सेवा नियमों के तहत उस व्यक्ति पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। यहां सवाल उठता है कि इस तरह की घटनाएं क्यों नहीं रुक रही हैं।

दरअसल, हमारी शिक्षा व्यवस्था का पूरा ढांचा ही इसके लिए जिम्मेदार है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में बच्चों को सिखाया नहीं जाता, बल्कि रटाया जाता है ताकि वह परीक्षा में अधिक से अधिक अंक ला सके। शिक्षक पर पाठ्यक्रम को पूरा कराने और परीक्षा के लिए बच्चों को तैयार करने का दबाव होता है। यह पाठ्यक्रम ऊंचे शोध संस्थानों और अधिकारियों के कार्यालयों में बनाया जाता है जिसमें शिक्षकों की कोई भूमिका नहीं होती है। इस वजह से भी बच्चों को सजा देने की घटनाएं बढ़ रही हैं। साथ ही देश में शिक्षक और बच्चों के बीच अनुपात ऐसा है कि वह छात्रों की क्षमताओं और आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दे पाते हैं और शिक्षक सिर्फ अपना पाठ्यक्रम पूरा करने पर ज्यादा जोर देता है।

हमारे यहां शिक्षक की जैसे-जैसे लाचारी बढ़ी है, उसी तरह से स्कूल में उसकी क्रूरता बढ़ती जा रही है। हमारी व्यवस्था में स्कूल को हिंसक बनाने वाले तत्व लगातार सक्रिय रहे हैं। विरासत चाहे अंग्रेजी राज से मानें, चाहे शिक्षा प्रणाली की स्थापना के पहले चल रही शिक्षा से, बच्चों पर हिंसा हमारी स्कूली संस्कृति का स्वीकृत अंग रही है। हमारे समाज में बच्चे को अनुशासन में रखने के लिए बच्चों के साथ मारपीट करने और उन्हें डराने की संस्कृति को स्वीकृति मिली हुई है। स्कूल का काम बच्चों की क्षमताओं और कौशल को विकसित करना होता है, लेकिन स्कूलों में उनकी क्षमताओं और कौशल को विकसित करने के बजाए बच्चों को कहा जाता है कि वह सीखने या पढ़ने लायक नहीं है जिससे बच्चे अपना आत्मविश्वास खो देते हैं और सजा दिए जाने के लिए भी खुद को जिम्मेदार ठहराने लगते हैं।

इस बात को राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग (एन.सी.पी.सी.आर) के स्कूलों में शारीरिक दंड अध्ययन से समझा जा सकता है। जिसमें कहा गया है कि निजी स्कूलों में बच्चों के साथ सरकारी स्कूलों के मुकाबले ज्यादा क्रूर व्यवहार होता है। इसी अध्ययन में यह बात भी सामने आई कि लड़कें और लड़कियां दोनों सजा पाते हैं। जबकि हमारे समाज में यह धारणा बनी है कि लड़कियों को कम सजा मिलती है, जो कि गलत है। यह अध्ययन सात राज्यों में किया गया था।


चाइल्ड साइकलॉजी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इस बात को मनाते है कि बच्चों को मार-पीट या डाटने के बजाए प्यार से समझाना चाहिए। हमारे समाज में अनुशासन को डाटने और मार-पीट करने तक सीमित कर दिया है। मार-पीट करने या डाटने के बजाए बच्चों को इस तरह से शिक्षित किया जाए कि वह अनुशासन के महत्व को समझे और वह खुद को अनुशासित रखें। महज शिक्षकों को मारपीट या सजा न देने के निर्देशों से सुधार नहीं होगा। शिक्षकों पर हावी दबावों को भी समझना होगा और शिक्षा व्यवस्था की खामियों में भी सुधार करना होगा, तभी इस तरह की घटनाओं में कुछ कमी आ सकती हैं। 

रविवार, 7 दिसंबर 2014

आजादी बनाम सुरक्षा संदर्भ सीसीटीवी कैमरा

हरियाणा रोडवेज की बस में छेड़छाड़ करने वाले मनचलों को दो बहनों ने सबक सिखाया। जबकि पूरी बस में सभी लोग तमाशबीन बनकर तमाशा देखते रहे, सिर्फ एक गर्भवती महिला ने ही उनका विरोध किया। इस तरह की घटनाएं दिल्ली, हरियाणा या फिर कोई और राज्य सभी जगह हो रही है। दिल्ली में महिलाओं और आमलोग की सुरक्षा का तर्क देकर दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) ने अपनी 200 बसों में सीसीटीवी कैमरे लगाए हैं। कहा जा रहा है कि इन कैमरों को बसों में सफर करने वाले लोगों, खासकर के महिलाओं की सुरक्षा को पुख्ता करने के लिए लगाया गया हैं। हर बस में तीन-तीन कैमरे लगाए गए हैं। 200 बसों में एसी लो फ्लोर और नॉन एसी लो फ्लोर बसें शामिल हैं। इससे ठीक पहले दिल्ली पुलिस ने भी राजधानी के चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी कैमरे लगाने का फैसला किया। यहां सवाल उठता है कि क्या महज सीसीटीवी तकनीक के जरिए ही आमलोगों और महिलाओं की सुरक्षा हो सकती है। क्या अब सार्वजनिक परिवहन के तहत चलने वाली बसों में भी सीसीटीवी कैमरों की जरूरत है जिसमें सैकड़ों लोग सफर करते हैं। जब सैकड़ों लोगों के बीच कोई लूट-पाट या छेड़छाड़ की घटना होती है, लेकिन उस घटना को रोकने के लिए कोई भी आगे नहीं आता। इसकी एक वजह यह है कि हम लोगों एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां हम अन्य लोगों के प्रति संवेदनहीन होते जा रहे हैं। दूसरी वजह यह है कि आम जनता पुलिस से दूर ही रहना चाहती है, क्योंकि अगर कोई व्यक्ति किसी की मदद भी करना चाहता है तो हमारा पुलिस और प्रशासनिक तंत्र मदद करने वाले को ही अपने शिकंजे में लेने की कोशिश करता है। साथ ही उसे लंबे समय तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर भी लगाने पड़ते हैं। तब क्या महज सीसीटीवी कैमरों के लगाए जाने के बाद आम लोग या महिलाएं बसों में सुरक्षित होगी, यह कहना मुश्किल है।

सीसीटीवी कैमरों से पहले डीटीसी बसों में ही सुरक्षा के नाम पर और यात्रियों की सुविधा का तर्क देकर जीपीएस सिस्टम को लगाया गया था ताकि बसों की वास्तविक स्थिति और रूट की जानकारी मिल सके है। लेकिन जीपीएस सिस्टम के बावजूद भी स्थिति जस की तस बनी हुई है। दिल्ली सरकार का एक और फैसला जिसके तहत रात में चलने वाली डीटीसी बसों में होमगार्ड जवानों को तैनात करने की बात कही। लेकिन इन सभी फैसलों के बाद भी अपराध की घटनाओं में कोई कमी नहीं हुई।
जब सड़कों और मुख्य मार्गों पर सीसीटीवी कैमरों को लगाया जा रहा है, तब फिर बसों में इन कैमरों की क्या जरूरत है। गौरतलब है कि कैसे मेट्रो में लगे सीसीटीवी कैमरों का दुरुपयोग हुआ और उनसे अश्लील वीडियो क्लिप्स बनाए गए। मेट्रो स्टेशनों पर सीसीटीवी होने के बावजूद चोरी की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। इससे भी यह बात साफ होती है कि महज तकनीक के जरिए ही चोरियां नहीं रोकी जा सकती हैं।

आम लोगों की सुरक्षा का तर्क देकर सरकार आसानी से सड़कों, बाजारों के बाद अब बसों में भी सीसीटीवी कैमरे लगा रही है। लेकिन यहां एक सवाल उठता है कि इस तरह से बढ़ती सीसीटीवी कैमरों की निगरानी क्या आम लोगों की आजादी के खिलाफ नहीं है? इस तकनीक के जरिए क्या अपराधों को कम किया जा सकता है? ब्रिटेन जैसे देश में जहां पर सबसे अधिक सीसीटीवी कैमरे लगाए गए है जब वहां पर अपराध दर में कमी नहीं आई है। तो फिर हम क्यों सीसीटीवी के जरिए अपराध दर को कम कर लेना चाहते है, जो कि संभव नहीं है। सरकार और प्रशासन अपराध के कारणों की जड़ों में जाने के बजाए सीसीटीवी कैमरों को ही समाधान मानने लगा है। इससे सरकार और प्रशासन अपनी जिम्मेदारी से भी बच जाते हैं और सुरक्षा व्यवस्था में होने वाली खामियों को भी छिपा लेते हैं।
   
सीसीटीवी कैमरों के जरिए सिर्फ हमें अपराध की घटना के संबंध सुराग या सबूत ही मिल सकते है। इस तकनीक की मदद से मिले सुराग या सबूत के बाद भी पुलिस कई घटनाओं में अपराधी को पकड़ने पाने नाकाम रही है। इस बात से यह भी स्पष्ट होता है कि महज इस तकनीक के भरोसे सुरक्षा का दावा नहीं किया जा सकता। यह तकनीक हमारी सुरक्षा व्यवस्था को बेहतर कर सकती है, लेकिन सीसीटीवी कैमरों के भरोसे ही सुरक्षा की बात करना बेमानी है। इस तकनीक का इस्तेमाल भी उतना ही किया जाना चाहिए जिससे आम आदमी की आजादी खतरे में न पड़े।

हमारे समाज में सुरक्षा के नाम पर सी.सी.टी.वी कैमरे का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। इस बात को ऐसोचैम की 2012 की रिपोर्ट से भी समझा जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सीसीटीवी के बाजार की समग्र वार्षिक विकास दर 30 प्रतिशत है और एक अनुमान के मुताबिक यह 2015 तक 2200 करोड़ रुपये का हो जाएगा। इस समय भारत में कुल इलेक्ट्रॉनिक सुरक्षा बाजार 2400 करोड़ का है जिसमें सीसीटीवी कैमरे का प्रतिनिधित्व 40 प्रतिशत है और सीसीटीवी कैमरे का बाजार तेजी बढ़ कर रहा है। भारत का सीसीटीवी बाजार वैश्विक औसत के मुकाबले भी तेजी से बढ़ रहा है और एशियन देशों में चीन भी इसी तेजी से विकास कर रहा है। 


अगर इसी तरह से सुरक्षा के नाम पर सीसीटीवी कैमरों को बढ़ावा दिया गया तो इससे अपराध दर भले ही न घटे लेकिन इसे आम आदमी की आजादी जरूर खतरे में पड़ जाएगी। इस तकनीक को ज्यादा से ज्यादा उपयोग करने बजाए बेहतर होगा कि हम पुलिस सुधार पर ज्यादा बल दें। पुलिस सुधार को लेकर कई कमेटियां का गठन हुआ, लेकिन उन कमेटियां की सिफारिशों को आज तक अमल में नहीं लाया गया है। यहां तक की सुप्रीम कोर्ट के व्यापक दिशा-निर्देश के बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। आम लोगों के बीच पुलिस को अपनी छवि को सुधारना होगा, ताकि पुलिस और जनता के बीच संबंध कायम हो सके। तभी इस तरह की घटनाओं को रोक जा सकता हैं। 

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

सुरक्षा का सवाल और मीडिया का नजरिया


एक राष्ट्रीय अखबार (जनसत्ता) ने अपने दिल्ली संस्करण में 20 जुलाई को पेज नंबर चार पर लाजपतनगर बाजारः खतरे में खरीदारी हेडलाइन से खबर छापी। पूरी खबर में लाजपतनगर में अनधिकृत दुकानों से होनी वाली अव्यवस्था के बारे में बताया गया है। साथ ही खबर में लाजपतनगर 1996 में हुए विस्फोट की फाइल फोटो भी लगाई गई है और उस घटना के बारे में विस्तार से बताया है।

इसी किस्म की एक दूसरी खबर एक अन्य समाचार पत्र (नवोदय टाइम्स) में 24 जुलाई को तीसरी आंख में खराबीः कैसे रखी जाए आतंकियों पर नजर शीर्षक से छपी। इसमें लोट्स टेंपल, आनंद विहार, दिल्ली का पॉश मार्केट साकेत, पी.वी.आर मार्केट, पहाड़गंज बाजार, कुतुबमीनार और लाजपतनगर मार्केट इन सभी जगहों को सब-हेड बनाकर उसमें सी.सी.टी.वी कैमरों की खराबी के बारे में बताया गया है, जबकि खबर में सिर्फ लोट्स टेंपल और कुतुबमीनार के बारे कहा गया है कि एनआईए कई बार पत्र लिखकर इन सार्वजनिक स्थलों को सुरक्षा घेरे में रखने की बात कह चुकी है। पहाड़गंज बाजार के बारे में लिखा गया है कि 2005 में आतंकियों ने यहां हमला किया था।

यह दोनों खबरें एक-दूसरे से अलग दिख सकती है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। दोनों खबरों के जरिए यह बताने की कोशिश की गई है कि अव्यवस्था और सी.सी.टी.वी कैमरे खराब होने के कारण इन जगहों पर घूमना तथा खरीदारी करना खतरे से खाली नहीं है। सवाल यह है कि जो अव्यवस्था बाजार में साल भर रहती है, उस अव्यवस्था को खास समय में ही पत्रकार क्यों सुरक्षा से जोड़कर देखता है तथा खबर लिखता है, जबकि बाकी समय में यह अव्यवस्था सिर्फ अव्यवस्था ही रहती है। जाहिर है कि इस तरह की खबरें देकर स्वतंत्रता दिवस के लिए सुरक्षात्मक और राष्ट्रवादी माहौल तैयार करने की कोशिश की जाती है। इससे यह भी साफ हो जाता है कि ऐसे पत्रकार पाठकों के लिए उस तरह का माहौल तैयार कर रहे हैं, जैसे कोई आतंकी घटना होने वाली हो।  

एक अखबार अपनी खबर में खतरा शब्द का प्रयोग करता है, तो दूसरा आतंकी शब्द का। दोनों ही खबरें हेडिंग के मुताबिक नहीं लगती है। खतरा और आतंकी शब्द का इस्तेमाल बिना किसी पुख्ता स्रोत के धड़ल्ले से किया जा रहा है। पत्रकारिता में शब्दों का अपना महत्व होता है। लेकिन लगता है कि पत्रकारिता में शब्दों के प्रति संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है। अब तक आतंकवाद, आतंकी जैसे शब्दों का प्रयोग उसके अर्थों में किया जाता था लेकिन पिछले कुछ समय से आतंकवाद, आतंकी शब्द के अर्थ को मीडिया ने बदल कर रख दिया है। मीडिया अपने अनुकूल आतंकवाद, आतंकी शब्द का प्रयोग करता है, ठीक उसी प्रकार एक पत्रकार अपनी खबरों में आतंकी शब्द का प्रयोग करता है। इसलिए तो सी.सी.टी.वी कैमरे जहां खराब हों, वहां आतंकी शब्द का प्रयोग करने की सहूलियत पत्रकारों को मिल जाती है। इसी सहूलियत के तहत आजकल कुछ पत्रकार किसी विशेष अवसर या त्योहार पर पूर्व की घटनाओं को पृष्ठभूमि के तौर पर उपयोग कर खबरें गढ़ने लगे हैं। किसी घटना से जुड़ी पिछली घटनाओं का ब्यौरा पेश करने के लिए पृष्ठभूमि का इस्तेमाल किया जाता है। मगर अब पत्रकार पृष्ठभूमि को आधार बनाकर खबर देने लगे हैं।      

एक बात यह भी है कि सुरक्षा को सिर्फ आतंकियों से ही कैसे जोड़ा जा सकता है जिसका कोई आधार न हो। इन बाजारों या सार्वजनिक स्थानों पर होने वाली हिंसा, लूट-पाट, चोरी आदि की घटनाओं का संबंध भी सुरक्षा से ही है, तो फिर पत्रकार क्यों सुरक्षा को आतंकी घटनाओं तक सीमित करने की कोशिश कर रहा है। दूसरे, सुरक्षा को सिर्फ सी.सी.टी.वी तक क्यों समेटने की कोशिश की जा रही है। घटना घटने के स्थान पर सी.सी.टी.वी कैमरे का न होना या खराब होने को सुरक्षा में खामी के तौर पर देखा जाता है। समय-समय पर यह बात कही जाती है कि भीड़भाड़ वाले इलाकों में सीसीटीवी कैमरे न होने के कारण वहां कोई हमला या विस्फोट हो गया। सीसीटीवी कैमरे से पहले भी सुरक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए एक्सरे मशीन और मेटल डिटेक्टर जैसे उपकरणों का प्रयोग किया गया है। तब फिर हम सीसीटीवी कैमरे को सुरक्षा व्यवस्था में सहायक उपकरण मनाने के बजाए उसे ही सुरक्षा का पर्याय बनाने में क्यों लगे हैं। सीसीटीवी कैमरों को बढ़ावा देने के लिए कहा जाता है कि इससे अपराध की घटनाओं में कमी आएगी। सवाल यह है कि सीसीटीवी कैमरा ही कैसे अपराध की घटनाओं को रोकने में सक्षम हो सकता है। इसके जरिए सिर्फ हमें अपराध की घटना के संबंध सुराग या सबूत ही मिल सकते है। शायद यह इसी का नतीजा है कि इस बार के बजट में महिला सुरक्षा के नाम पर सीसीटीवी उद्योग को प्रोत्साहन दिया गया है। हमारे समाज में सुरक्षा के नाम पर सी.सी.टी.वी कैमरे का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। इस बात को ऐसोचैम की 2012 की रिपोर्ट से भी समझा जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में सीसीटीवी के बाजार की समग्र वार्षिक विकास दर 30 प्रतिशत और एक अनुमान के मुताबिक यह 2015 तक 2200 करोड़ रुपये का हो जाएगा। इस समय भारत में कुल इलेक्ट्रॉनिक सुरक्षा बाजार 2400 करोड़ का है जिसमें सीसीटीवी कैमरे का प्रतिनिधित्व 40 प्रतिशत है और सीसीटीवी कैमरे का बाजार तेजी बढ़ रहा है। भारत का सीसीटीवी बाजार वैश्विक औसत के मुकाबले भी तेजी विकास कर रहा है और एशियन देशों में चीन भी इसी तेजी से विकास कर रहा है। 

जिस तेजी से इसके कारोबार में बढ़ोतरी हो रही है उससे कहा जा सकता है कि जानबूझकर मीडिया के जरिये समाज में सुरक्षा के नाम पर डर का माहौल पैदा किया जा रहा है ताकि ऐसे उपकरणों की बिक्री बढ़े। इस मुनाफावाद में जनता के टैक्स का बंदरबांट करने का सरकारों को मौका मिल जाता है और ऐसे उपकरणों की सुरक्षा के नाम पर भारी भरकम खरीद-फरोख्त की जाती है। इस मुनाफावाद को बढ़ावा देने में पत्रकारों की बड़ी भूमिका होती है और वे इस तरह की मनगढ़ंत खबरें गढ़ने में लगे रहते हैं।

 



  




बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय के आंकड़ों की बाजीगरी


राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों के आधार पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय और सरकार कह रही है कि कुल सरकारी स्कूल 10,94,431 में से सिर्फ 1,01,443 स्कूलों में ही लड़कियों के लिए शौचालय नहीं है और 87,984 स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय काम नहीं कर रहे है। जिन स्कूलों में शौचालय नहीं है और काम नहीं कर रहे है उन दोनों के आंकड़ो को मिला दिया जाए तो यह आंकड़ा 189427 हो जाएगा, जो कि कुल सरकारी स्कूलों का 17.30 फीसदी होगा। इसी साल जनवरी में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अपने आंकड़ों में बताया था कि 2009-10 में 41 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं थी, लेकिन 2012-13 में यह संख्या घटकर 31 फीसदी रह गई। लेकिन 2013-14 में 17.30 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं और शौचालय काम नहीं कर रहे हैं (जिसे मीडिया में 19 फीसदी बताया गया है)। सवाल ये है कि जब 2012-13 में यह 31 प्रतिशत था, तो 2013-14 में घटकर 17.30 प्रतिशत कैसे हो सकता है। जबकि 2010 से 2012 के बीच सिर्फ 10 फीसदी की गिरावट आई थी। तब महज एक साल में 13.50 फीसदी की गिरावट कैसे आ सकती है। जबकि यह बात स्पष्ट है कि इस तरह के आंकड़ों में मामूली बढ़ोतरी होती है या फिर मामूली गिरावट आती है। इस वजह से लड़कियों के लिए अलग शौचालय के आंकड़ों में तेजी से आई गिरावट विश्वसनीय नहीं लगती है।

इसी रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली के सभी स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय की व्यवस्था है और सभी शौचालय ठीक से काम कर रहे है। जबकि हाल ही में अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक साउथ दिल्ली के बदरपुर में मोलरबंद गर्वान्मेंट बॉयस सीनियर सेकेंड्ररी स्कूल में शौचालय बदबूदार मिले। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि आंकड़ों में कुछ न कुछ गड़बड़ है।

उत्तर प्रदेश में कुल सरकारी स्कूल 160763 है, जिनमें से सिर्फ 2355 स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है, जोकि 1.46 प्रतिशत है। जबकि 4634 स्कूलों में लड़कियों के शौचालय काम नहीं कर रहे है, जोकि 2.91 प्रतिशत है। इसी साल के प्रथम संस्थान के सेंटर "असर" (एनुवल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) के सर्वे के मुताबिक प्रदेश के विद्यालयों में 2013 में 80 फीसद स्कूलों में पेयजल की सुविधा हो चुकी है, 79.9 फीसद स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय पाया गया। इसके बाद भी दुर्भाग्य की स्थिति रही कि 44 फीसद स्कूलों में ही शौचालय उपयोग करने के योग्य मिले। प्रथम की रिपोर्ट के मुताबिक 20 फीसदी में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है, जबकि राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के मुताबिक सिर्फ 1.46 फीसदी स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि असर के सर्वे में सरकारी और निजी दोनों स्कूलों शामिल है, लेकिन तब भी असर और राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों में काफी अंतर दिखता है। दो संस्थानों के अध्ययनों में 1-2 फीसदी अंतर तो हो सकता है, लेकिन यहां अंतर 18 फीसदी है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि यह सिर्फ आंकड़ो का खेल है।

इसी रिपोर्ट के गुजरात के आंकड़ों के मुताबिक 33713 स्कूल में से सिर्फ 87 स्कूलों लड़कियों के लिए अलग शौचालय नही है और 869 स्कूलों में लड़कियों के शौचालय ठीक से काम नहीं कर रहे है। जबकि बुनियादी अधिकार आंदोलन गुजरात (बाग) ने गुजरात के 249 स्कूलों प्राइमरी स्कूलों में सर्वे किया जिसमें कच्छ, बनासकांठा, सुरेन्द्रनगर, नर्मदा, दाहोद, पंचमहल, अहमदाबाद जिले शामिल किए गए। बनासकांठा के सात प्राइमरी स्कूलों, सुरेन्द्रनगर के तीन प्राइमरी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं है। बाकी के पांच जिलों के कुछ स्कूलों में पानी के पानी की सुविधा भी नहीं है। बुनियादी अधिकार आंदोलन गुजरात ने 249 प्राइमरी स्कूलों में सर्वे किया जिसमें से 10 प्राइमरी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की सुविधा नहीं है, तब राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों को कैसे विश्वसनीय कहा जा सकता है।

एक सवाल यह भी है कि लड़कों के लिए भी शौचालय की व्यवस्था लड़कियों के मुकाबले कोई बेहतर नहीं है। क्योंकि कुल सरकारी स्कूल 10,94,431 में से 1,52,231 स्कूलों में लड़कों के लिए शौचालय सुविधा नहीं है। लेकिन मीडिया ने सिर्फ लड़कियों के लिए शौचालय न होने के आंकड़ों को लेकर ही खबर बनाई। जिससे ऐसा लगता है कि लड़कों के लिए शौचालय की समस्या ही नहीं है। स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था लड़के और लड़कियों दोनों के जरूरी है।

दरअसल सभी लोग आंकड़ों का इस्तेमाल अपनी सुविधानुसार करते हैं। सरकार आंकड़ों के जरिए अपनी उपलब्धियां बताती है, तो वहीं एक पत्रकार उन्हीं आंकड़ों से सरकार की उपलब्धियों की पोल खोल सकता है। सारा मामला यह है कि हम किस तरह से आंकड़ों को प्रस्तुत करते है। आंकड़ों का स्वयं में कोई महत्व नहीं है। अहम बात यह है कि हम आंकड़ों को किसलिए और किस तरह से तैयार कर रहे है। आंकड़ों के जरिए हम क्या बताना चाहते है।